Friday, June 4, 2010

आमलकी एकादशी

युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से कहा : श्रीकृष्ण ! मुझे फाल्गुन मास के शुक्लपक्ष की एकादशी का नाम और माहात्म्य बताने की कृपा कीजिये ।

भगवान श्रीकृष्ण बोले: महाभाग धर्मनन्दन ! फाल्गुन मास के शुक्लपक्ष की एकादशी का नाम ‘आमलकी’ है । इसका पवित्र व्रत विष्णुलोक की प्राप्ति करानेवाला है । राजा मान्धाता ने भी महात्मा वशिष्ठजी से इसी प्रकार का प्रश्न पूछा था, जिसके जवाब में वशिष्ठजी ने कहा था :

‘महाभाग ! भगवान विष्णु के थूकने पर उनके मुख से चन्द्रमा के समान कान्तिमान एक बिन्दु प्रकट होकर पृथ्वी पर गिरा । उसीसे आमलक (आँवले) का महान वृक्ष उत्पन्न हुआ, जो सभी वृक्षों का आदिभूत कहलाता है । इसी समय प्रजा की सृष्टि करने के लिए भगवान ने ब्रह्माजी को उत्पन्न किया और ब्रह्माजी ने देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, नाग तथा निर्मल अंतःकरण वाले महर्षियों को जन्म दिया । उनमें से देवता और ॠषि उस स्थान पर आये, जहाँ विष्णुप्रिय आमलक का वृक्ष था । महाभाग ! उसे देखकर देवताओं को बड़ा विस्मय हुआ क्योंकि उस वृक्ष के बारे में वे नहीं जानते थे । उन्हें इस प्रकार विस्मित देख आकाशवाणी हुई: ‘महर्षियो ! यह सर्वश्रेष्ठ आमलक का वृक्ष है, जो विष्णु को प्रिय है । इसके स्मरणमात्र से गोदान का फल मिलता है । स्पर्श करने से इससे दुगना और फल भक्षण करने से तिगुना पुण्य प्राप्त होता है । यह सब पापों को हरनेवाला वैष्णव वृक्ष है । इसके मूल में विष्णु, उसके ऊपर ब्रह्मा, स्कन्ध में परमेश्वर भगवान रुद्र, शाखाओं में मुनि, टहनियों में देवता, पत्तों में वसु, फूलों में मरुद्गण तथा फलों में समस्त प्रजापति वास करते हैं । आमलक सर्वदेवमय है । अत: विष्णुभक्त पुरुषों के लिए यह परम पूज्य है । इसलिए सदा प्रयत्नपूर्वक आमलक का सेवन करना चाहिए ।’

ॠषि बोले : आप कौन हैं ? देवता हैं या कोई और ? हमें ठीक ठीक बताइये ।
पुन : आकाशवाणी हुई : जो सम्पूर्ण भूतों के कर्त्ता और समस्त भुवनों के स्रष्टा हैं, जिन्हें विद्वान पुरुष भी कठिनता से देख पाते हैं, मैं वही सनातन विष्णु हूँ।

देवाधिदेव भगवान विष्णु का यह कथन सुनकर वे ॠषिगण भगवान की स्तुति करने लगे । इससे भगवान श्रीहरि संतुष्ट हुए और बोले : ‘महर्षियो ! तुम्हें कौन सा अभीष्ट वरदान दूँ ?
ॠषि बोले : भगवन् ! यदि आप संतुष्ट हैं तो हम लोगों के हित के लिए कोई ऐसा व्रत बतलाइये, जो स्वर्ग और मोक्षरुपी फल प्रदान करनेवाला हो ।

श्रीविष्णुजी बोले : महर्षियो ! फाल्गुन मास के शुक्लपक्ष में यदि पुष्य नक्षत्र से युक्त एकादशी हो तो वह महान पुण्य देनेवाली और बड़े बड़े पातकों का नाश करनेवाली होती है । इस दिन आँवले के वृक्ष के पास जाकर वहाँ रात्रि में जागरण करना चाहिए । इससे मनुष्य सब पापों से छुट जाता है और सहस्र गोदान का फल प्राप्त करता है । विप्रगण ! यह व्रत सभी व्रतों में उत्तम है, जिसे मैंने तुम लोगों को बताया है ।

ॠषि बोले : भगवन् ! इस व्रत की विधि बताइये । इसके देवता और मंत्र क्या हैं ? पूजन कैसे करें? उस समय स्नान और दान कैसे किया जाता है?

भगवान श्रीविष्णुजी ने कहा : द्विजवरो ! इस एकादशी को व्रती प्रात:काल दन्तधावन करके यह संकल्प करे कि ‘ हे पुण्डरीकाक्ष ! हे अच्युत ! मैं एकादशी को निराहार रहकर दुसरे दिन भोजन करुँगा । आप मुझे शरण में रखें ।’ ऐसा नियम लेने के बाद पतित, चोर, पाखण्डी, दुराचारी, गुरुपत्नीगामी तथा मर्यादा भंग करनेवाले मनुष्यों से वह वार्तालाप न करे । अपने मन को वश में रखते हुए नदी में, पोखरे में, कुएँ पर अथवा घर में ही स्नान करे । स्नान के पहले शरीर में मिट्टी लगाये ।

मृत्तिका लगाने का मंत्र

अश्वक्रान्ते रथक्रान्ते विष्णुक्रान्ते वसुन्धरे ।

मृत्तिके हर मे पापं जन्मकोटयां समर्जितम् ॥

वसुन्धरे ! तुम्हारे ऊपर अश्व और रथ चला करते हैं तथा वामन अवतार के समय भगवान विष्णु ने भी तुम्हें अपने पैरों से नापा था । मृत्तिके ! मैंने करोड़ों जन्मों में जो पाप किये हैं, मेरे उन सब पापों को हर लो ।’

स्नान का मंत्र


त्वं मात: सर्वभूतानां जीवनं तत्तु रक्षकम्।

स्वेदजोद्भिज्जजातीनां रसानां पतये नम:॥

स्नातोSहं सर्वतीर्थेषु ह्रदप्रस्रवणेषु च्।

नदीषु देवखातेषु इदं स्नानं तु मे भवेत्॥

‘जल की अधिष्ठात्री देवी ! मातः ! तुम सम्पूर्ण भूतों के लिए जीवन हो । वही जीवन, जो स्वेदज और उद्भिज्ज जाति के जीवों का भी रक्षक है । तुम रसों की स्वामिनी हो । तुम्हें नमस्कार है । आज मैं सम्पूर्ण तीर्थों, कुण्डों, झरनों, नदियों और देवसम्बन्धी सरोवरों में स्नान कर चुका । मेरा यह स्नान उक्त सभी स्नानों का फल देनेवाला हो ।’

विद्वान पुरुष को चाहिए कि वह परशुरामजी की सोने की प्रतिमा बनवाये । प्रतिमा अपनी शक्ति और धन के अनुसार एक या आधे माशे सुवर्ण की होनी चाहिए । स्नान के पश्चात् घर आकर पूजा और हवन करे । इसके बाद सब प्रकार की सामग्री लेकर आँवले के वृक्ष के पास जाय । वहाँ वृक्ष के चारों ओर की जमीन झाड़ बुहार, लीप पोतकर शुद्ध करे । शुद्ध की हुई भूमि में मंत्रपाठपूर्वक जल से भरे हुए नवीन कलश की स्थापना करे । कलश में पंचरत्न और दिव्य गन्ध आदि छोड़ दे । श्वेत चन्दन से उसका लेपन करे । उसके कण्ठ में फूल की माला पहनाये । सब प्रकार के धूप की सुगन्ध फैलाये । जलते हुए दीपकों की श्रेणी सजाकर रखे । तात्पर्य यह है कि सब ओर से सुन्दर और मनोहर दृश्य उपस्थित करे । पूजा के लिए नवीन छाता, जूता और वस्त्र भी मँगाकर रखे । कलश के ऊपर एक पात्र रखकर उसे श्रेष्ठ लाजों(खीलों) से भर दे । फिर उसके ऊपर परशुरामजी की मूर्ति (सुवर्ण की) स्थापित करे।

‘विश्वरुपिणे नम:’ से दोनों घुटनों की,

‘उग्राय नम:’ से जाँघो की,

‘दामोदराय नम:’ से कटिभाग की,

‘पधनाभाय नम:’ से उदर की,

‘श्रीवत्सधारिणे नम:’ से वक्ष: स्थल की,

‘चक्रिणे नम:’ से बायीं बाँह की,

‘गदिने नम:’ से दाहिनी बाँह की,

‘वैकुण्ठाय नम:’ से कण्ठ की,

‘यज्ञमुखाय नम:’ से मुख की,

‘विशोकनिधये नम:’ से नासिका की,

‘वासुदेवाय नम:’ से नेत्रों की,

‘वामनाय नम:’ से ललाट की,

‘सर्वात्मने नम:’ से संपूर्ण अंगो तथा मस्तक की पूजा करे ।

ये ही पूजा के मंत्र हैं। तदनन्तर भक्तियुक्त चित्त से शुद्ध फल के द्वारा देवाधिदेव परशुरामजी को अर्ध्य प्रदान करे ।

अर्ध्य का मंत्र इस प्रकार है :

नमस्ते देवदेवेश जामदग्न्य नमोSस्तु ते ।

गृहाणार्ध्यमिमं दत्तमामलक्या युतं हरे ॥

‘देवदेवेश्वर ! जमदग्निनन्दन ! श्री विष्णुस्वरुप परशुरामजी ! आपको नमस्कार है, नमस्कार है । आँवले के फल के साथ दिया हुआ मेरा यह अर्ध्य ग्रहण कीजिये ।’

तदनन्तर भक्तियुक्त चित्त से जागरण करे । नृत्य, संगीत, वाघ, धार्मिक उपाख्यान तथा श्रीविष्णु संबंधी कथा वार्ता आदि के द्वारा वह रात्रि व्यतीत करे । उसके बाद भगवान विष्णु के नाम ले लेकर आमलक वृक्ष की परिक्रमा एक सौ आठ या अट्ठाईस बार करे । फिर सवेरा होने पर श्रीहरि की आरती करे । ब्राह्मण की पूजा करके वहाँ की सब सामग्री उसे निवेदित कर दे । परशुरामजी का कलश, दो वस्त्र, जूता आदि सभी वस्तुएँ दान कर दे और यह भावना करे कि : ‘परशुरामजी के स्वरुप में भगवान विष्णु मुझ पर प्रसन्न हों ।’ तत्पश्चात् आमलक का स्पर्श करके उसकी प्रदक्षिणा करे और स्नान करने के बाद विधिपूर्वक ब्राह्मणों को भोजन कराये । तदनन्तर कुटुम्बियों के साथ बैठकर स्वयं भी भोजन करे ।

सम्पूर्ण तीर्थों के सेवन से जो पुण्य प्राप्त होता है तथा सब प्रकार के दान देने दे जो फल मिलता है, वह सब उपर्युक्त विधि के पालन से सुलभ होता है । समस्त यज्ञों की अपेक्षा भी अधिक फल मिलता है, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है । यह व्रत सब व्रतों में उत्तम है ।’

वशिष्ठजी कहते हैं : महाराज ! इतना कहकर देवेश्वर भगवान विष्णु वहीं अन्तर्धान हो गये । तत्पश्चात् उन समस्त महर्षियों ने उक्त व्रत का पूर्णरुप से पालन किया । नृपश्रेष्ठ ! इसी प्रकार तुम्हें भी इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए ।

भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं : युधिष्ठिर ! यह दुर्धर्ष व्रत मनुष्य को सब पापों से मुक्त करनेवाला है ।
Amalaki Ekadashi


King Maandhaataa once said to Vasishtha Muni, "O great sage, kindly be merciful to me and tell me of a holy fast that will benefit me eternally."


Vasishtha Muni replied. "O king, kindly listen as I describe the best of all fast days, Amalakii Ekadashi. He who faithfully observes a fast on this Ekadashii obtains enormous wealth, gets free of the effects of all kinds of sins, and attains liberation. Fasting on this Ekadashii is more purifying than donating one thousand cows in charity to a pure brAhmana. So please hear me attentively as I tell you the story of a hunter who, though daily engaged in killing innocent animals for his living, achieved liberation by observing a fast on Amalakii Ekadashii following the prescribed rules and regulations of worship.

"There was once a kingdom named Vaidishaa, where all the braahmanas, kshatriyas, vaishyas, and shudras were equally endowed with Vedic knowledge, great bodily strength, and fine intelligence. Oh lion among kings, the whole kingdom was full of Vedic sounds, not a single person was atheistic, and no one sinned. The ruler of this kingdom was King PAshabinduka, a member of the dynasty of Soma, the moon. He was also known as Chitraratha and was very religious and truthful. It is said that King Chitraratha had the strength of ten thousand elephants and that he was very wealthy and knew the six branches of Vedic wisdom perfectly.


"During the reign of Maharaja Chitraratha, not a single person in his kingdom attempted to practice another's dharma (duty) so perfectly engaged in their own dharmas were all the braahmanas, kshatriyas, vaisyas, and sudras. Neither miser nor pauper was to be seen throughout the land, not was there ever a drought or flood. Indeed, the kingdom was free of disease, and everyone enjoyed good health. The people rendered loving devotional service to the Supreme Personality of Godhead, Lord Vishnu, as did the king, who also rendered special service to Lord Shiva. Moreover, twice a month everyone fasted on Ekadashii.


"In this way, O best of kings, the citizens of Vaidishaa lived many long years in great happiness and prosperity. Giving up all varieties of materialistic religion, they completely dedicated themselves to the loving service of the Supreme Lord, Hari.

"Once, in the month of Phalguna (February - March), the holy fast of Amalakii Ekadashii arrived, conjoined with DvAdasi. King Chitraratha realised that this particular fast would bestow especially great benefit, and thus he and all the citizens of Vaidishaa observed this sacred Ekadashii very strictly, carefully following all the rules and regulations.


"After bathing in the river, the king and all his subjects went to the temple of Lord Vishnu, where an Amalakii tree grew. First the king and his leading sages offered the tree a pot filled with water, as well as a fine canopy, shoes, gold, diamonds, rubies, pearls, sapphires, and aromatic incense. Then they worshiped Lord ParashurAma with these prayers: 'Oh Lord ParashurAma, Oh son of RenukA, Oh all-pleasing one, Oh liberator of the worlds, kindly come beneath this holy Amalakii tree and accept our humble obeisances.'


Then they prayed to the Amalakii tree: 'Oh Amalakii, Oh offspring of Lord BrahmA, you can destroy all kinds of sinful reactions. Please accept our respectful obeisances and these bumble gifts. O Amalakii, you are actually the form of Brahman, and you were once worshiped by Lord RAmachandra Himself. Whoever circumambulates you is therefore immediately freed of all his sins.'


"After offering these excellent prayers, King Chitraratha and his subjects remained awake throughout the night, praying and worshiping according to the regulations governing a sacred Ekadashii fast. It was during this auspicious time of fasting and prayer that a very irreligious man approached the assembly, a man who maintained himself and his family by killing animals. Burdened with both fatigue and sin, the hunter saw the king and the citizens of Vaidishaa observing Amalakii Ekadashii by performing an all-night vigil, fasting, and worshiping Lord Vishnu in the beautiful forest setting, which was brilliantly illuminated by many lamps. The hunter hid nearby, wondering what this extraordinary sight before him was.


'What is going on here?' he thought. What he saw in that lovely forest beneath the holy Amalakii tree was the Deity of Lord DAmodara being worshiped upon the Asana of a waterpot, and what he heard were devotees singing sacred songs describing Lord Krishna's transcendental forms and pastimes. Despite himself, that staunchly irreligious killer of innocent birds and animals spent the entire night in great amazement as he watched the Ekadashii celebration and listened to the glorification of the Lord.


"Soon after sunrise, the king and his royal retinue - including the court sages and all the citizens - completed their observance of Ekadashii and returned to the city of Vaidishaa. The hunter then returned to his hut and happily ate his meal. In due time the hunter died, but the merit he had gained by fasting on Amalakii Ekadashii and hearing the glorification of the Supreme Personality of Godhead, as well as by being forced to stay awake all night, made him eligible to be reborn as a great king endowed with may chariots, elephants, horses, and soldiers. His name was VasUratha, the son of King VidUratha, and he ruled over the kingdom of Jayanti.


"King VasUratha was strong and fearless, as effulgent as the Sun, and as handsome as the Moon. In strength he was like Sri Vishnu, and in forgiveness like the Earth itself. Very charitable and every truthful, King VasUratha always rendered loving devotional service to the Supreme Lord, Sri Vishnu. He therefore became very well versed in Vedic knowledge. Always active in the affairs of state, he enjoyed taking excellent care of his subjects, as though they were his own children. He disliked pride in anyone and would smash it when he saw it. He performed many kinds of sacrifices, and he always made certain that the needy in his kingdom received enough charity.


"One day, while hunting in the jungle, King VasUratha strayed from the footpath and lost his way. Wandering for some time and eventually growing weary, he paused beneath a tree and, using his arms as a pillow, fell asleep. As he slept, some barbarian tribesmen came upon him and, remembering their longstanding enmity toward the king, began discussing among themselves various ways to kill him. 'It is because he killed our fathers, mothers, brothers-in-law, grandsons, nephews, and uncles that we are forced to aimlessly wander like so many madmen in the forest.' So saying, they prepared to kill King VasUratha with various weapons, including spears, swords, arrows, and mystic ropes.


"But none of these deadly weapons could even touch the sleeping king, and soon the uncivilised, dog-eating tribesmen grew frightened. Their fear sapped their strength, and before long they lost what little intelligence they had and became almost unconscious with bewilderment and weakness. Suddenly a beautiful woman appeared from the king's body, startling the aborigines. Decorated with many ornaments, emitting a wonderful fragrance, wearing an excellent garland around her neck, her eyebrows drawn in a mood of fierce anger, and her fiery red eyes ablaze, she looked like death personified. With her blazing chakra discus she quickly killed all the tribal hunters, who had tried to slay the sleeping king.


"Just then the king awoke, and seeing all the dead tribesmen lying around him, he was astonished. He wondered, 'These are all great enemies of mine! Who has slain them so violently? Who is my great benefactor?'

"At that very moment he heard a voice from the sky: 'You ask who helped you. Well, who is that person who alone can help anyone is distress? He is none other than Sri Keshava, the Supreme Personality of Godhead, He who saves all who take shelter of Him without any selfish motive.'


"Upon hearing these words, King VasUratha became over-whelmed with love for the Personality of Godhead Sri Keshava (Krishna). He returned to his capital city and ruled there like a second lord Indra (king of the heavenly regions), without any obstacles at all.

"Therefore, Oh King Maandhaataa," the venerable Vasishtha Muni concluded, "...anyone who observes this holy Amalakii Ekadashii will undoubtedly attain the supreme abode of Lord Vishnu, so great is the religious merit earned from the observance of this most sacred fast day."


Thus ends the narration of the glories of Phalguna-sukla Ekadashi, or Amalaki Ekadashi, from the Brahmanda Purana.

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एकादशी की रात्रि में श्रीहरि के समीप जागरण का माहात्मय

सब धर्मों के ज्ञाता, वेद और शास्त्रों के अर्थज्ञान में पारंगत, सबके हृदय में रमण करनेवाले श्रीविष्णु के तत्त्व को जाननेवाले तथा भगवत्परायण प्रह्लादजी जब सुखपूर्वक बैठे हुए थे, उस समय उनके समीप स्वधर्म का पालन करनेवाले महर्षि कुछ पूछने के लिए आये ।

महर्षियों ने कहा : प्रह्रादजी ! आप कोई ऐसा साधन बताइये, जिससे ज्ञान, ध्यान और इन्द्रियनिग्रह के बिना ही अनायास भगवान विष्णु का परम पद प्राप्त हो जाता है । उनके ऐसा कहने पर संपूर्ण लोकों के हित के लिए उद्यत रहनेवाले विष्णुभक्त महाभाग प्रह्रादजी ने संक्षेप में इस प्रकार कहा : महर्षियों ! जो अठारह पुराणों का सार से भी सारतर तत्त्व है, जिसे कार्तिकेयजी के पूछने पर भगवान शंकर ने उन्हें बताया था, उसका वर्णन करता हूँ, सुनिये ।

महादेवजी कार्तिकेय से बोले : जो कलि में एकादशी की रात में जागरण करते समय वैष्णव शास्त्र का पाठ करता है, उसके कोटि जन्मों के किये हुए चार प्रकार के पाप नष्ट हो जाते हैं । जो एकादशी के दिन वैष्णव शास्त्र का उपदेश करता है, उसे मेरा भक्त जानना चाहिए ।

जिसे एकादशी के जागरण में निद्रा नहीं आती तथा जो उत्साहपूर्वक नाचता और गाता है, वह मेरा विशेष भक्त है । मैं उसे उत्तम ज्ञान देता हूँ और भगवान विष्णु मोक्ष प्रदान करते हैं । अत: मेरे भक्त को विशेष रुप से जागरण करना चाहिए । जो भगवान विष्णु से वैर करते हैं, उन्हें पाखण्डी जानना चाहिए । जो एकादशी को जागरण करते और गाते हैं, उन्हें आधे निमेष में अग्निष्टोम तथा अतिरात्र यज्ञ के समान फल प्राप्त होता है । जो रात्रि जागरण में बारंबार भगवान विष्णु के मुखारविंद का दर्शन करते हैं, उनको भी वही फल प्राप्त होता है । जो मानव द्वादशी तिथि को भगवान विष्णु के आगे जागरण करते हैं, वे यमराज के पाश से मुक्त हो जाते हैं । जो द्वादशी को जागरण करते समय गीता शास्त्र से मनोविनोद करते हैं, वे भी यमराज के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं । जो प्राणत्याग हो जाने पर भी द्वादशी का जागरण नहीं छोड़ते, वे धन्य और पुण्यात्मा हैं । जिनके वंश के लोग एकादशी की रात में जागरण करते हैं, वे ही धन्य हैं । जिन्होंने एकादशी को जागरण किया हैं, उन्होंने यज्ञ, दान , गयाश्राद्ध और नित्य प्रयागस्नान कर लिया । उन्हें संन्यासियों का पुण्य भी मिल गया और उनके द्वारा इष्टापूर्त कर्मों का भी भलीभाँति पालन हो गया । षडानन ! भगवान विष्णु के भक्त जागरणसहित एकादशी व्रत करते हैं, इसलिए वे मुझे सदा ही विशेष प्रिय हैं । जिसने वर्द्धिनी एकादशी की रात में जागरण किया है, उसने पुन: प्राप्त होनेवाले शरीर को स्वयं ही भस्म कर दिया । जिसने त्रिस्पृशा एकादशी को रात में जागरण किया है, वह भगवान विष्णु के स्वरुप में लीन हो जाता है । जिसने हरिबोधिनी एकादशी की रात में जागरण किया है, उसके स्थूल सूक्ष्म सभी पाप नष्ट हो जाते हैं । जो द्वादशी की रात में जागरण तथा ताल स्वर के साथ संगीत का आयोजन करता है, उसे महान पुण्य की प्राप्ति होती है । जो एकादशी के दिन ॠषियों द्वारा बनाये हुए दिव्य स्तोत्रों से, ॠग्वेद , यजुर्वेद तथा सामवेद के वैष्णव मन्त्रों से, संस्कृत और प्राकृत के अन्य स्तोत्रों से व गीत वाद्य आदि के द्वारा भगवान विष्णु को सन्तुष्ट करता है उसे भगवान विष्णु भी परमानन्द प्रदान करते हैं ।

य: पुन: पठते रात्रौ गातां नामसहस्रकम् ।

द्वादश्यां पुरतो विष्णोर्वैष्णवानां समापत: ।

स गच्छेत्परम स्थान यत्र नारायण: त्वयम् ।

जो एकादशी की रात में भगवान विष्णु के आगे वैष्णव भक्तों के समीप गीता और विष्णुसहस्रनाम का पाठ करता है, वह उस परम धाम में जाता है, जहाँ साक्षात् भगवान नारायण विराजमान हैं ।

पुण्यमय भागवत तथा स्कन्दपुराण भगवान विष्णु को प्रिय हैं । मथुरा और व्रज में भगवान विष्णु के बालचरित्र का जो वर्णन किया गया है, उसे जो एकादशी की रात में भगवान केशव का पूजन करके पढ़ता है, उसका पुण्य कितना है, यह मैं भी नहीं जानता । कदाचित् भगवान विष्णु जानते हों । बेटा ! भगवान के समीप गीत, नृत्य तथा स्तोत्रपाठ आदि से जो फल होता है, वही कलि में श्रीहरि के समीप जागरण करते समय ‘विष्णुसहस्रनाम, गीता तथा श्रीमद्भागवत’ का पाठ करने से सहस्र गुना होकर मिलता है । जो श्रीहरि के समीप जागरण करते समय रात में दीपक जलाता है, उसका पुण्य सौ कल्पों में भी नष्ट नहीं होता । जो जागरणकाल में मंजरीसहित तुलसीदल से भक्तिपूर्वक श्रीहरि का पूजन करता है, उसका पुन: इस संसार में जन्म नहीं होता । स्नान, चन्दन , लेप, धूप, दीप, नैवेघ और ताम्बूल यह सब जागरणकाल में भगवान को समर्पित किया जाय तो उससे अक्षय पुण्य होता है । कार्तिकेय ! जो भक्त मेरा ध्यान करना चाहता है, वह एकादशी की रात्रि में श्रीहरि के समीप भक्तिपूर्वक जागरण करे । एकादशी के दिन जो लोग जागरण करते हैं उनके शरीर में इन्द्र आदि देवता आकर स्थित होते हैं । जो जागरणकाल में महाभारत का पाठ करते हैं, वे उस परम धाम में जाते हैं जहाँ संन्यासी महात्मा जाया करते हैं । जो उस समय श्रीरामचन्द्रजी का चरित्र, दशकण्ठ वध पढ़ते हैं वे योगवेत्ताओं की गति को प्राप्त होते हैं ।

जिन्होंने श्रीहरि के समीप जागरण किया है, उन्होंने चारों वेदों का स्वाध्याय, देवताओं का पूजन, यज्ञों का अनुष्ठान तथा सब तीर्थों में स्नान कर लिया । श्रीकृष्ण से बढ़कर कोई देवता नहीं है और एकादशी व्रत के समान दूसरा कोई व्रत नहीं है । जहाँ भागवत शास्त्र है, भगवान विष्णु के लिए जहाँ जागरण किया जाता है और जहाँ शालग्राम शिला स्थित होती है, वहाँ साक्षात् भगवान विष्णु उपस्थित होते हैं ।

एकादशी व्रत विधि

दशमी की रात्रि को पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करें तथा भोग विलास से भी दूर रहें । प्रात: एकादशी को लकड़ी का दातुन तथा पेस्ट का उपयोग न करें; नींबू, जामुन या आम के पत्ते लेकर चबा लें और उँगली से कंठ शुद्ध कर लें । वृक्ष से पत्ता तोड़ना भी वर्जित है, अत: स्वयं गिरे हुए पत्ते का सेवन करे । यदि यह सम्भव न हो तो पानी से बारह कुल्ले कर लें । फिर स्नानादि कर मंदिर में जाकर गीता पाठ करें या पुरोहितादि से श्रवण करें । प्रभु के सामने इस प्रकार प्रण करना चाहिए कि: ‘आज मैं चोर, पाखण्डी और दुराचारी मनुष्य से बात नहीं करुँगा और न ही किसीका दिल दुखाऊँगा । गौ, ब्राह्मण आदि को फलाहार व अन्नादि देकर प्रसन्न करुँगा । रात्रि को जागरण कर कीर्तन करुँगा , ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय’ इस द्वादश अक्षर मंत्र अथवा गुरुमंत्र का जाप करुँगा, राम, कृष्ण , नारायण इत्यादि विष्णुसहस्रनाम को कण्ठ का भूषण बनाऊँगा ।’ - ऐसी प्रतिज्ञा करके श्रीविष्णु भगवान का स्मरण कर प्रार्थना करें कि : ‘हे त्रिलोकपति ! मेरी लाज आपके हाथ है, अत: मुझे इस प्रण को पूरा करने की शक्ति प्रदान करें ।’ मौन, जप, शास्त्र पठन , कीर्तन, रात्रि जागरण एकादशी व्रत में विशेष लाभ पँहुचाते हैं।

एकादशी के दिन अशुद्ध द्रव्य से बने पेय न पीयें । कोल्ड ड्रिंक्स, एसिड आदि डाले हुए फलों के डिब्बाबंद रस को न पीयें । दो बार भोजन न करें । आइसक्रीम व तली हुई चीजें न खायें । फल अथवा घर में निकाला हुआ फल का रस अथवा थोड़े दूध या जल पर रहना विशेष लाभदायक है । व्रत के (दशमी, एकादशी और द्वादशी) -इन तीन दिनों में काँसे के बर्तन, मांस, प्याज, लहसुन, मसूर, उड़द, चने, कोदो (एक प्रकार का धान), शाक, शहद, तेल और अत्यम्बुपान (अधिक जल का सेवन) - इनका सेवन न करें । व्रत के पहले दिन (दशमी को) और दूसरे दिन (द्वादशी को) हविष्यान्न (जौ, गेहूँ, मूँग, सेंधा नमक, कालीमिर्च, शर्करा और गोघृत आदि) का एक बार भोजन करें।

फलाहारी को गोभी, गाजर, शलजम, पालक, कुलफा का साग इत्यादि सेवन नहीं करना चाहिए । आम, अंगूर, केला, बादाम, पिस्ता इत्यादि अमृत फलों का सेवन करना चाहिए ।

जुआ, निद्रा, पान, परायी निन्दा, चुगली, चोरी, हिंसा, मैथुन, क्रोध तथा झूठ, कपटादि अन्य कुकर्मों से नितान्त दूर रहना चाहिए । बैल की पीठ पर सवारी न करें ।


भूलवश किसी निन्दक से बात हो जाय तो इस दोष को दूर करने के लिए भगवान सूर्य के दर्शन तथा धूप दीप से श्रीहरि की पूजा कर क्षमा माँग लेनी चाहिए । एकादशी के दिन घर में झाडू नहीं लगायें, इससे चींटी आदि सूक्ष्म जीवों की मृत्यु का भय रहता है । इस दिन बाल नहीं कटायें । मधुर बोलें, अधिक न बोलें, अधिक बोलने से न बोलने योग्य वचन भी निकल जाते हैं । सत्य भाषण करना चाहिए । इस दिन यथाशक्ति अन्नदान करें किन्तु स्वयं किसीका दिया हुआ अन्न कदापि ग्रहण न करें । प्रत्येक वस्तु प्रभु को भोग लगाकर तथा तुलसीदल छोड़कर ग्रहण करनी चाहिए ।

एकादशी के दिन किसी सम्बन्धी की मृत्यु हो जाय तो उस दिन व्रत रखकर उसका फल संकल्प करके मृतक को देना चाहिए और श्रीगंगाजी में पुष्प (अस्थि) प्रवाहित करने पर भी एकादशी व्रत रखकर व्रत फल प्राणी के निमित्त दे देना चाहिए । प्राणिमात्र को अन्तर्यामी का अवतार समझकर किसीसे छल कपट नहीं करना चाहिए । अपना अपमान करने या कटु वचन बोलनेवाले पर भूलकर भी क्रोध नहीं करें । सन्तोष का फल सर्वदा मधुर होता है । मन में दया रखनी चाहिए । इस विधि से व्रत करनेवाला उत्तम फल को प्राप्त करता है । द्वादशी के दिन ब्राह्मणों को मिष्टान्न, दक्षिणादि से प्रसन्न कर उनकी परिक्रमा कर लेनी चाहिए ।

व्रत खोलने की विधि :

द्वादशी को सेवापूजा की जगह पर बैठकर भुने हुए सात चनों के चौदह टुकड़े करके अपने सिर के पीछे फेंकना चाहिए । ‘मेरे सात जन्मों के शारीरिक, वाचिक और मानसिक पाप नष्ट हुए’ - यह भावना करके सात अंजलि जल पीना और चने के सात दाने खाकर व्रत खोलना चाहिए ।